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ओहिए उद्देसए तहेव जाव वेदेति ॥ ॥ काविहाणं भंते ! अणतरोववण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पण्णचा ? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोबवण्णगा जाव वणस्सइ काइया । अणंतरोव वण्णगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया पुढवीकाइयाणं भंते ! कइविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा ५० तंजहा-सुहुम पुढत्रीकाइयाय, वादर पुढधीकाइयाय, एवं दुपओ भेदो ॥ अणंतरोववण्णगा, कण्हलेस्सा भवसिद्धिय मुहुम पुढवीकाइयाणं भंते ! कइकम्म पगडीओ ५० एवं एएणं अभिलावणं जहेव
ओहिओ अणंतरोववण्णग उद्देसओ तहब जाव वेदेति ॥ २ ॥ एवं एएणं अभिभावार्थ कहा जैसे ही कहना. यावत् वेदते हैं ॥१॥ अहो भगवन् ! अनंतरोत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक
एकेन्द्रिय कितने कहे हैं ! अहो गौतम ! पांच भेद कहे हैं. अनंतरोत्पन्न कृष्ण लेश्यावाले भवसिद्धिक पृथ्वीकाया यावत् वनस्पतिकाया. अहो भगवन् ! अनंतरानक कृष्ण लेश्यावाले भवसिदिक' पृथ्वीकाया के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! दो भेद कहे हैं. सूक्ष्म पृथ्वीकाया व. बादर पृथ्वीकाया.
यों दो पद कहना. यों यावत् अनंतरोत्पन्नक कृष्ण लेश्याबाले भामिद्धिक. सूक्ष्म पृथ्वीकाया को कितनी 1कर्म प्रकृतियों कही ? अहो गौतम ! उक्त अभिलाप से जैसे औधिक अनंतरोत्पत्र उद्देशा का वैसे ही
4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
पकाधक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.