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शब्दार्थ
भावार्थ
विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र *
१ क० कितनेप्रकारका भ० भगवन् आ० अशिाविष ५० प्ररूपा गो० गौतम दु० दोपकारका आ० आशीविष ५० प्ररूपा तं० वह ज० जैसे जा० जाति आशीविष क० कर्मआशीविष ॥ १ ॥ जा० जातिआ परिणया, मीसा परिणथा अणंतगुणा, वीससा परिणया अणंतगुणा ॥ सेवं भंते 4 भंतोत्त ॥ अट्टम सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ८ ॥ १ ॥ *
कइविहाणं भंते ! असीविसा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, प्रयोग परिणत से प्रयोगकृत आकार परिणमने से, इस से वीनसा परिणत अनंत गुने परमाणु है खंडादि जीव ग्रहण योग्य के अनंतपना से. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह आठवा शतक का पहिला उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ ८॥७॥ है प्रथम उद्देशे में पुद्गल परिणाम कहा दूसरे उद्देशे में उसका ही स्वरूप आशीविष द्वार से कहते
अहो भगवन् ! आशीविष (दाढका विष) के कितने भेद कहे हैं ? अहो गोतम! आशीविषके दो भेद कहे हैं ! १ जाति आशीविष सो जिनको जन्म से दाढ में विष होवे मो जाति अशिविष और जिनको कर्म से-क्रियासे अश्वा शापादिक उपधात से आशीविष होवे सो कर्म आशीविष. यह आशीविष पर्याप्त पंन्द्रिय तियेच व मनुष्य में ही होता है, यह आशीविष तपश्चरणादि अनुष्टान से उत्पन्न होता है, शाप देने से जब वह नष्ट होता है तब आशीविष लब्धि स्वभाव ।
354 आठवा शतक का दूसरा उद्देशा