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शब्दार्थ
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१.२ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी 200
निर्वाणपामे स० सर्व दुःख का अं० अंत करे गो. गौतम णो० नहीं इ० यह अर्थ स. समर्थ से वह के० कैसे भ० भगवन् जा. यावत् अंत न नहीं क० करे गो० गौतम अ० असंवृत अनगार आ० आयुष्य व० वर्जकर स. सात कर्म प्रकृति सि० शिथिल 40 बंधन ब. बंधिहइ को ध० निकाचित बं० बंधनसे? १० बद्ध प० करे ह. इस्वकाल की ठि० स्थिनि को दी. दीर्घकाल की ठि० स्थिति ५० करे मं. मंद अनुभाग को ति० तीव्र अनुभाग ५० करे अ० अल्प प्रदेश को २० बहुत प्रदेश प.
णोइणटे समढे ॥ से केणटेणं भंते जाव अंतं न करेति ? गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउय वजाओ सत्तकम्म पगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणिय बंधण बढाओ पकरेइ; हस्सकालद्वितीयाओ दीहकालद्वितीयाओ पकरेइ; मंदाणुभावाओ
तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्प पदेसगाओ बहुपदेसगाओ पकरेइ, आउयंचणं कम्म व सब दुःखों का अंत करे ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ऐसा नहीं होता है. पुन: गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि अहो भगवन् ! किस कारणसे असंतृत अणगार सिझ नहीं, बुझे नहीं यावत् । सब दुख का अंतकरे नहीं? अहो गौतम ! असंवत अणगार आयुष्ये कर्म छोडकर अन्य मात कर्म की प्रकृतियों का शिथिल बंधन हवा होवे तो उनका निकाचित बंध करता है, इस्त्र कालकी स्थिति वाले
१ आयुष्य कर्मका बंध भव आश्रित एकही वक्तहोताहै.
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ