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( रा ० राजा की आज्ञा
आज्ञा
शब्दार्थ है | जाना जी० जीवाजीव जा० यावत् प० देता हुवा छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित त तप कर्म से अ० ( आत्मा को भा० भावता हुआ वि०विचरता है त० तब से वह व ं वरुण ना० नाग का पौत्र अ० एकदा ग० ज्ञाति की आज्ञा से ब० बलात्कार से २० रथमुशल संग्राम में आ० कराया हुवा छ० छट से अ० अठम अ० बढाकर कु· कौटुम्बिक को स० बोलाकर ए० ऐसा वृ०बोले खि० शीघ्र भो० अहो दे० देवानुभिय चा० चारघंटवाला अ० अश्वरथ जु० युक्त उ० तैयार करो ह० अश्व ग अपरिभूए, समणांवासए अभिगय जीवाजीने जाव पडिला भेमाणे छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ तरणं से वरुणे नागनत्तुए अण्णया कयाई रायाभियोगेणं, गणाभियोगेणं, बलाभियोगेणं, रहमुसले संगामे आणसमाणे छत्तिए अट्टमभत्तं अणुवड्डेइ अणुवड्डेइत्ता कोडुंबिय पुरिसे सदावेइ सावेत्ता एवं वयासी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव जाननेवाला श्रमणोपासक यात्रत अतिथि को अशनादि देता हुवा छछट का निरंतर तप करके आत्मा को भावता हुआ विचरता था. उस समय में नाग नप्तृक वरुण को राजा की आज्ञासे, गणकी (आज्ञासे व वलात्कार से रथमुशल संग्राम में जाने का हुआ.. इस तरह आज्ञा होने से छष्ट भक्त तप का अष्टम भक्त तप किया और अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बोला कर ऐसा कहा कि अहो देवानुप्रिय ! चार घण्ट वाला
सूत्र
भावार्थ
१० अनुवादकं बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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