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शब्दार्थ
+ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिनी
जा० जितने भं० भगवन् अ. अन्न में गि० ग्लान स० श्रमण णि निग्रन्थ क. कर्म णि निर्जरते
• इतने क० कर्मणः नरक में णे. नारकी को वा० वर्ष से० वा. वहुत वाँसे वा० वर्ष शत से ख. क्षयकरे णो० नहीं इ. यह अ० अर्थ स. समर्थ ॥१॥ सरल ॥२ से ५ ॥ से० अथ के. कैसे भं
रायगिहे जाव एवं क्यासी जावइयं णं भंते ! अण्णगिलायए समणे णिग्गंथे कम्म णिजरेति, एवइयं कम्मं णरएसु णेरइयाणं वासेणं वासहिंवा वाससएणवा खर्विति?
णो इण? समटे ॥३॥ जावइयं णं भंते ! चउत्थभत्तिए समणे णिगथे कम्म णिज्जरेति एवइयं कम्मं णरएसु णेरड्या वाससएणवा, काससतेहिवा, वाससहस्सेणवा
खवयंति ? णो इणट्टे समझे।२ ॥ जावइयंणं भंते ! छ? भत्तिए समणे णिग्गंथे । तीसरे उद्देशे में अनगार की बक्तव्यता कही. आगे भी उसको ही कहते हैं. राजगृह नगर में गुणशील उद्यान में यावत् गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! अनविना ग्लानि पानेवाले श्रमण निग्रंथ
कुरगडुबत् ] जितने कर्भ की निर्जरा करे उतने कमों को क्या नास्की नरक में एक वर्ष में, बहुत वर्षों में 3 या सो वर्ष में क्षय करे? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है॥२॥ अहो भगवन्! चौथ भक्त (एक उपवास) । तप करता हुवा श्रमण निग्रंथ जितने कर्म का क्षय करे उतने कर्म नरक में रहा हुवा नारकी सो वर्ष में त्येक सो वर्ष में या सहस्र वर्ष में क्या खपावे ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है ॥२॥ अहो।
घकाजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी -
भावार्थ
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