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शब्दार्थ
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१. सा० शालुक मं• भगवन् ए. एक पत्र में किं. क्या ए० एक जीव अ० अनेक जीव गो० गौतम ए.
एक जीव ए. ऐसे उ० उत्पल उ० उद्देशा की व वक्रव्यता भा० कहना जा० पावत् अ० अनंत वक्त रण. विशेष स• शरीर ओ० अवगाहना ज• जयन्य अ० अंगुल का अ० असंख्यातवा भाग उ० उत्कृष्ट ध० धनुष्य पु० पृथक् से० शेष तं० तैसे से० वह ए. एसे भं भगवन् ॥ ११ ॥ २ ॥
सालुएणं भंते ! एगपत्तए किं एग जीवे अणेग जीवे ? गोयमा ! एग जीवे, एवं उप्पल उद्देसग वत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अणंत खुत्ता, णवरं सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, सेसं तंचव
सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगारस सयस्सय बितिओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ २ ॥ भावार्थ
है प्रथम उद्देशे में उत्पल कमल का वर्णन किया. अब दूसरे उद्देश में सालु नामक कमल का वर्णन कहते है हैं. अहो भगवन् ! साल के एक पत्र में एक जीव या अनेक जीव हैं ? अहो गौतम ! जैसे प्रथम उद्देशे में , कहा वैसे ही यहां पर अनंत वार उत्पन्न होते हैं वहां तक कहना परंतु शरीर अवगाहना जघन्य अंत मुहून उत्कृष्ट प्रत्येक धनुष्य की जानना. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारवा शतक का दूमरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ११ ॥ २॥
अनवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी में
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*