________________
७६६
शब्दार्थ नारकी ति० तिर्यंच म. मनुष्य दे० देव ग. गति आ• आगति ५० संबंधी सा. सादि स० *
सान्त सि० सिद्धगीत १० आश्रित सा० सादि अ० अनंत भ० भवसिद्धिक ल. लब्धि ५० आश्रित अ. अनादि स० सान्त अ० अभवसिद्धिक सं० संसार १० आश्रित अ० अनादि अ० अनंत ते इसलिये ॥५॥ क० कितनी भं० भगवन् क० कर्म प्रकृति प० कही गो० गौतम अ० आट क० कर्म प० प्रकृतियों प० कहीं णा० ज्ञाना बरणीय दं० दर्शना वरणीय जा. यावत् अं० अंतराय ना
पुच्छा ? गोयमा ! सादया सपज्जवसिया चत्तारि वि भाणियव्वा ॥ से केण?णं ?
गोथमा ! नेरइय तिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवा गइरागइं पडुच्च सादीया सपज्जवE. सिया ॥ सिद्धगतिं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लडिं पडुच्च अणादिया
सपजवसिया, अभवसिद्धिया संसारपडुच्च अणादीया अपजवसिया से तेणट्रेणं ॥५॥ भावार्थ
गति आश्रित सादि अनंत है क्योंकि सिद्धगति में उत्पन्न होने का है परंतु चवने का नहीं है. भवसिदिकी लन्धि आश्री अनादि सान्त है क्योंकि जीव को स्वभाव से भवसिद्धिकी लब्धि होती है परंतु जब सिद्ध होते हैं उस समय में लब्धि का क्षय होता है और अभवसिद्धिक संसार आश्री अनादि अनंत है. इसलिये जीव में चार भांगे ग्रहण किये हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! कर्म प्रकृतियों कितने प्रकार की कही हैं अहो गौतम ! १ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६ नाम,
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *