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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
43- पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
{ जा० यावत् सं० सत्कार कर स० सन्मानकर तं० उन मि० मित्र णा० ज्ञाति णि० संबंधी जा० यावत् १५० परिजन रा० राजाओं ख० क्षत्रियों सि० शिवभद्र रा० राजा को आ० पूछकर सु० बहुत लो० लोह के पात्र क० कडाइ क० कडुछी जा० यावत् भ० भांडे ग० ग्रहणकर जे० जो गं० गंगाकूल वा० वान { प्रस्थ ता० तापस भ० होते हैं जा० यावत् ते० उन की अं० पास मुं० मुंडहोकर दि० दिशा पोषक ता० | सापसपने ५० प्रवर्जीत हुवा प प्रवजित होकर ए० इसरूप अ० अभिग्रह गि० ग्रहणकरे क० कल्पता है मे० मुझे जा० जीवन पर्यंत छ० छठ जा० यावत् अ० अभिग्रह अ० ग्रहणकर प० प्रथम छ० छटक्षमण खत्तिएय सिवभदंश्च रायाणं आपुच्छइ २त्ता सुबहु लोही लोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडं हाय जे इमे गंगाकूल वाणप्पत्था तावसा भवंति तं चैव जात्र तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खिय तावसत्ताए पव्वइए, पव्वइए वियणं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं गिoes कप्पइ मे जावजीवाए छटुं तंचेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ २त्ता पान, खादिम व स्वादिम यों चारों प्रकार का आहार वगैरह जैसे तामली तापस का अधिकार है वैसे { कहना यावत् सत्कार सन्मान करके मित्र ज्ञाति स्वजन यावत् परिजन राजा, क्षत्रियों व शिवभद्र कुमार को पुछकर लोहे की कडाइ व कुडछी आदि भंडोपकरण लेकर जो गंगा नदी के किनारे तापस रहते थे उन { में से दीक्षा पोषक तापस की पास दीक्षा अंगीकार की. फीर ऐसा अभिग्रह किया और मथमही बेलेर का
4003 अग्यारवा शतक का नववा उद्देशां 49
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