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शब्दार्थ
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+3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
उ० अंगीकार कर वि. विचरता है ॥ १० ॥ त तब से वह सि• शिवराजर्षि ५० प्रथम छ छठक्षमण पा० पारणे में आ० आतापन भू० भूभि से प० उतरकर वा० वल्कल ५० वस्त्र नि० पहीनकर जे. जहां म० अपना उ० आश्रम ते तहां उ० आकर कि० कावड गि० ग्रहणकर पु० पूर्व दिशा में पो० जलसिंचे
पूर्वदिशा में सो० सोम म. महाराजा प. मोक्षमार्ग में प० प्रवृत्त के अ. अभिरक्षक सि० शिवराजर्षि का अरक्षण करो जाल जो त तहां कं० कंद मूल मूल त• त्वचा प० पत्र पु० पुष्प फ फल बी०वीज
पढभं छट्टक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥ १७ ॥ तएणं से सिवे रायरिसी पढम छट्ठक्खमण पारणगंसि आयावण भूमीए पच्चोरुहइ २ त्ता वालगवत्थ नियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ २ ता किढिणसंकाइयं गिण्हइ २त्ता पुरच्छिमं दिसिं पोक्खेइ पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खओ सिवं
रायरिसिं अभि २ जाणिय, तत्थ कंदाणिय मूलाणिय तयाणिय, पत्ताणिय पुप्फाणिय तप अंगीकार कर विचरने लगे ॥ १० ॥ जब प्रथम बेले का पारणा पाया तब आतापना भूमि से नीकल कर वल्कल धारण किये. और अपनी पर्णकटि में आये. और काष्ट का वंशमय तापस का अन्य भाजन (कावड ) लेकर पूर्व दिशा में पानी के छोटे डाले. फोर पर्व दिशा के सोम महाराजा परलोक साधने के मार्ग में प्रवजित बना हुवा शिवराजा को उन के फल फुल लेते हुवे विघ्न दूर करो, और कंद, मूल,
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ
mammnamanna