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शब्दार्थ
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी,
गोशाला म० मंखलिपुत्र को ए. ऐसा व बोला जे०जो गो गोशाला ए०एक स नखसहित कु० उडीदकी: पिं० मुष्टि ए० एक वि०विकटामन से छ० छठ छठ से अ० अंतर रहित उ० ऊर्ध्व बा. बाहु १० रखकर जा. यावत् वि. विवो अं अंदर छ० छत्रास की सं० संक्षिप्त वि० विपुल ते० तेजो लेश्याम भ० होवे ॥ ५४॥ त . तब से वह लो० गणना मं० मंखलिपुत्र म मेरा ए. यह अर्थ स. सम्यक __ मंखलिपुत्तं एवं क्यासी जेणं गोसाला ! एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेणय वियडासएणं छटुंछ?णं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पागज्झय पगिझिय जाव विहरइ, सणं अंतो छण्हं मासाणं संखित्त विउल तेउलेस्से भवइ, ॥ ५४ ॥
तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमटुं सम्म विणएणं पडिसुणेइ ॥५५॥तएणं अहं मेरी पास से ऐसा सुनकर मेखली पुत्र गौशाला डरा यावत् भयभीत होता हुवा बोला कि अहो भगवन् ! सीक्षप्त विपल तेजोलेश्यावाला कैसे होवे ? अहो गौतम ! उस ममय मैंने गोशाला से कहा कि अहो गोशाला! उडद के वाकले की नख सहित एक मुष्टि और एक ऊष्ण पानी का चल्लू ग्रहण कर निरंतर बेले ३ का तप करे. और उर्ध्व वाहा से सूर्य की आतापना लेते हुवे विचरे तो उन को छ मास में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या होती है. ॥ ५४॥ मंखली पुत्र गोशालाने मेरा इस अर्थ को मुना ॥ ५५ ॥
१ जब प्रयुजने में आवे नहीं तब संक्षिप्त और प्रयुजने में आवे तब विस्तृत होवे.....
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ