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शब्दार्थ 4 से० वह के० कैसे गो गौतम के केवली पु० पूर्वे मि० मर्यादायुक्त अ० मर्यादा रहित जा० जाने जा. यावत्
णि निराबरण दं० दर्शन के० केवली को ते० इसलिये ॥ ६ ॥ सूत्र ।
__ जीवइ तहेव भवियाय । एगंत दुक्ख वेयण, अत्तमायाय केवली ॥ सेवं भंते भंतेत्ति॥
3 छ?सए दसमो उद्देसो समत्तो ॥ ६ ॥ १० ॥ छट्ठसयं सम्मत्तं ॥ ६ ॥ भावार्थ इसलिये केवली इन्द्रियों से नहीं जानते हैं, व नहीं देखते हैं इस उद्देशे का सारांश कहते हैं. जीव का
सुख, दुःख, चैतन्य, प्राण, भव्य, एकान्त दुःख, आहार व केवली. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य । हैं. यह छठा शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुआ ॥६॥१०॥ और छठा शतक भी समाप्त हुआ ॥ ६॥ *
4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायनी मालाप्रसादजी *