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शब्दार्थ आत्मा स० शरीर खे० क्षेत्र औ• अवगाहित पो• पुद्गल अ० आत्मा से आ० ग्रहणकर आ• आहार
Too करे अ० अंतर रहित खेल क्षेत्र ओ० अवगाह्य पो० पदल अ. आत्मा से आ० ग्रहणकर १० परंपर Vखे० क्षेत्र ओ० अवगाहित पो० पुद्गल अ. आत्मा से अ० ग्रहण कर आ० आहार करते हैं ॥ ८॥ के०१. केवळी भं० भगवन् आ० इन्द्रिय से जा० जाने पा० देखे गो० गौतम नो० नहीं इ० यह अर्थ स० योग्य
अत्तमायाए आहारंति, परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति ? गोयमा ! आय सरीर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति नो अणंतर खेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारंति, नो परंपर खेत्तोगाढे । जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणं दंडओ ॥ ८ ॥ केवलीणं भंते! आयाणेहिं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणढे समढे । से केण?णं ? गोयमा ! केवलीणं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ, अमियंपि
जाणइ. जाव निव्वुडे सणे केवलिस्स से तेण?णं ॥ जीवाणय सुहं दुक्खं, जीवे भावार्थ क्षेत्रावगाहित आहार करने योग्य पुद्गलों का आहार करता है परंतु "अनंतर व परंपर क्षेत्रावगाहित
पुद्गलों का आहार नहीं करता है. नारकी जैसे वैमानिक तक सब दंडक का जानना ॥८॥ अहो भगवन् ! क्या केवली इन्द्रियों से जानते हैं व देखते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है क्यों कि केवली पूर्व में में मर्यादित व अमर्यादित जानते हैं व देखते हैं यावत् उन का ज्ञान आवरण रहित निर्मल रहा हुआ है।
48 पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र
छठा शतकका दशवा उद्देशा
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