________________
6
शब्दार्थ निद्रालेये ५० प्रचलालेवे है. हां नि० निद्रालेवे प० प्रचलालेवे ज० जैसे ह० हसे त० सैसे ण• विशेष द० } *
दर्शनावरणीय क• कर्म का उ• उदय से नि०निद्रालेवे प० प्रचलालेवे से वह के• केवली को न नहीं है। 4
अ० अनंत ।। ७॥ जी जीव भं भगवन् नि निद्रालेते ५० प्रचलालेते का कितनी क. कर्म प्रकृतियों F१० बांधता है गो० गौतम स० सात प्रकार का अ० आठ प्रकार का बं. बंथ ऐ. ऐसे जा. यावत् वे०१७
निदाएजवा पयलाएजवा, जहा हसेज्जा तहा. णवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएण, निदायइवा, पयलाइवा ॥ सेणं केवलिस्स नत्थि अणंतं चेव ॥७॥ जीवेणं भंते ! निदायमाणेवा पयलायमाणेवा कतिकम्मप्पगडीओ बंधइ ? गोयमा !
सत्तविह बंधएवा अट्टविहबंधएवा, एवं जाव वेमाणिए ॥ पोहत्तिएसु जीवेगिदिभावार्थ किया जावे वैसी निद्रा या चलते, बैठते जो निद्रा आवे वैसी निद्रा क्या लेते हैं ? हां गौतम ! छद्मस्थ
उक्त प्रकार की निद्रा लेते हैं वगैरह सब वर्णन छमस्थ जीव को हसने का आलापक कहा वैसे ही जानना परंतु यहां पर दर्शनावरणीय कर्म के उदय से निद्रा आती है वह कर्म केवली को नहीं होने से केवली निद्रा ।
लेते हैं ॥ ७॥ अहो भगवन् ! जीव निद्रा, व प्रचला करते कितनी प्रकृतियों का बंध करते अहो गौतम! जीव निद्रा व मचला करते सात अथवा आठ कर्म प्रकृतियों का बंध करता है. ऐसे ही चौविस
8. पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 40
48488 पांचवा शतक का चौथा उद्देशा