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शब्दार्थ | * {किं० क्या को० क्रोध युक्त म० मत्तावीस मं० भांगा ॥ १० ॥ इ० इप मं भगवन् जा०यावत् म०शरीर किं० क्या मं० मंठानत्राले प० प्ररूने गो० गातम दु० दो प्रकार के भ० भववारणीय उ० उत्तर वक्रेय त० तहां ० जे० जो भ० भवधारणीय ते० वे हुं हुंड़क संठानवाले त० तां जे० जो उ० उत्तर वैक्रेय ते ० वे हुँ० हुडक ठानाले इ० इस जा० यात्रत् हुँ० हुंडक मंठान में व वर्तते ने नारकी किं० क्या को० क्रोध युक्त ५० सत्तावीत मं० भांगा || ११ || इ० इस मं० भगवन र रमभा पु०पृथ्वी के ने० नारकी को क०
सूत्र
भावार्थ
88 पंचमांग विवाह पणति ( भगवती ) मूत्र
इमीसेणं भंते ! जाव सरीरया किं संठिया, पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता तंजहा-भवधाराणज्जाय, उत्तरवेउल्वियाय । तत्थणं ज ते भवधारणिजा, ते इंडसंठिया प्रण्णत्ता. तत्य जे ते उत्तर वेडव्विया तेविहुडसंठिया प० । इमीसणं जाव हुडसंठाणे माणा नेइया किं कोहावउत्ता ? जात्र सत्तावीसं भंगा ॥ ११ ॥ इमीसेणं गौतम ! यहां पर सत्तावीस भांगे ज्ञानना. ॥ १० ॥ पांच संस्थानद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इस रत्नम्भा नामक नरक के नरकावा में रहनेवाले वारकी क्या संस्थान वाले हैं। अहो गौतम ! नारकी को (दो प्रकार का शरीर कहा है. भवधारणीय व उत्तरप्रेय उन में जो भवधारणीय शरीर है वह इंडक संस्थान वाला है और जो उत्तर वैक्रेय शरीर बनाता है वह भी मुंडक संस्था मय ही बनता है. हुंडक संस्थानवाले नास्की में क्रोधादि चार कषाय के सत्तावीस भ्रांग पाते हैं ॥ ११ ॥ अव ब्रा लेश्याद्वार कहते हैं. भदो
40- 3 पहिला शतक का पांचवा उद्देशा
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