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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
8 अनुवादक- लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
१२० रत्नप्रभा जा० यावत् ने नारकी के सः शरिर किं० क्या सं० संघयणी गो० गौतम छः संवयण में से अॅ० असंधयणी ने० हड्डी रहित ने० मांग रहित ने० स्नायु रहित जे० जी पो० पुल अ० अनिष्ट ( अ = अकान्त अ० अमिय अ० अशुभ अ० अमनोज्ञ अअपना एवं उनको स० शरीर सं० संघयणपने प०परिणमते हैं इं० इस मं० भगवन् जा० यावत् छ० छसंघयण में से अ० असंघयणी व० वर्तते नेट नारकी तिण्णिसररिया भाणियव्वा ॥ ९ ॥ इमीसेणं भंते! रयणप्पभाए जाव नेरइयाणं सरिया किं संघयणा प० ? गोयमा । छण्हसंघयणाणं असंघयणी, नेवट्ठी, नेव छिरी, नेवण्हारुणि; जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता, अप्पिया, असुहा, अमणुण्णा, अमणामा, एएसिं सरीर संघायत्ताए परिणमति ॥ इमीसेणं भंते ! जाव छण्हं संघाण असंघणे वट्टमाणाणं नेरइया किं कोहोवउत्ता सत्तावीसं भंगा ॥ १० ॥ संघयणद्वार कहते हैं. अहो भगवन् ! इस प्रभा नरक के प्रत्येक नरकावास में रहनेवाले नारकी के शरीर क्या संघयणी है ? अहो गौतम ! वज्रऋमनारान आदि छ संघयण में से किसी प्रकार का संघयण नारकी के शरीर को नहीं पाता है. क्यों की उन के शरीर में अस्थि नाडी व नसों वगैरह नहीं है. जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अशुभ, अमनोज्ञ व अपणाम अहो मगवन् ! उक्त असंघयणी नारकी क्या क्रोधी ज्यादा
वे
शरीर के
घयणपते परिणमते हैं. लोभवन्त ज्यादा हैं ? अहो
यावत्
** प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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