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थणियकुमारा, ताव एवमेव ॥ २ ॥ पुढवीकाइया जाव मणुस्सा एए जहा गैरइया, वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ ३ ॥ कइविहाणं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता तंजहा-गिदाय अणिदाय ॥ णेरइयाणं भंते ! किंणिदाय वेदणं वेदेति, अणिदाय वेदण वेदेति, जहा पण्णवणाए जाव वेमाणियत्ति ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ एगुणवीसइमरस पंचमो उद्देसो सम्मत्तो।१९।५।
कहण्ण भंते ! दीव समुद्दा, केवइयाणं भंते ! दीव समुद्दा, किंसंठियाणं भंते ! दीव कुमार पर्यंत कहना ॥ २॥ पृथ्वी काया से मनुष्य पर्यंत नारकी जैसे कहना, और वाणव्यंतर ज्योतिषी व वैमानिक का असुर कुमार जैसे कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! वेदना के कितने भेद कहे हैं ? अहो गौतम ! वेदना के दो भेद कहे हैं. १ निदाय और अनिदाय. जिस वेदना को वेदते हुवे जीव जाने निदाय वेदना और जिस वेदना वेदते हुए जीव जाने नहीं सो अनिदाय वेदना. अहो भगवन्! क्या नारकी निदाय वेदना वेदते हैं या अनिदाय वेदना वेदते हैं ?वगैरह जैसे पनपणा पद में कहा वैरेही वैमानिक पर्यंत जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह उन्नीसवा शतक का पांचवा उद्देशा संपूर्ण हुवा।।१९॥५॥ पांचये उद्देशे के अंत में वेदना कही. वेदना भोगनेवाले द्वीप समुद्र में रहते हैं इस लिये दीप समुद्र का
42 अनुवादक-यालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ
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