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गा. ग्रामसंस्थित न० नगरसस्थित जां० यावत् स. सन्निवेश मंस्थित दी. द्वीपसंस्थित स० समुद्र * 29संस्थित वा० क्षेत्रसस्थित वा० वर्षधरसंस्थित ५० पर्वतसंस्थित रु० वृक्षसंस्थित यू. स्तूपसंस्थित ह०
अश्वतस्थित गगजसंस्थित न० नरसंस्थित कि किनर संस्थित कि० किंपुरुषसंस्थित म० महोरगसंस्थित गं• गांधबंसीस्थत उ० वृषभसंस्थित ५० पशु ५० पमय वि. विग व० वानर णा. नानासंस्थान
अण्णाणिएहि मिच्छादिट्ठिएहिं जहा नदिए जाव चत्तारिय वेदा संगोवंगा सेत्तं सुय. अण्णांणे ॥ सेकिंतं विभंगनाणे ? अगेगविहे प० तंजहा गामसंठिए, नगरसंठिए, जाव सन्निवेस संठिए; दीवसंठिए, समुदसंठिए, वाससंठिए वासहर संठिए, पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभसंठिए, हयसंठिए,गयसंठिए,नरसंठिए,किं नरसंठिए,किं पुरिस संठिए,
महारेम संठिए, गंधव्व संठिए, उसभ संठिए, पसुपसयविहगवानरणाणा संठाण संठिए भावार्थ होता है क्यों कि मन व चक्षु दोनों ही दूर रहे हुवे पदार्थ को प्रकाशने हैं इस से अर्थावग्रह के छ भेद
और व्यंजनावग्रह के चार भेद कहे हैं. श्रुत अज्ञान किस को कहते हैं ? जो मिथ्यादृष्टि से रामायण, महाभारत इत्यादि श्रवण करे, विचारे, निसब करे व धारण कर अथवा ऋग्, यजुः साम व अण वेद इन चार वेद और शिक्षादि छ उपांग उस की व्याख्या और स्वच्छंदपना से बनाये हुए शिल्पनिमित्तादिक सो श्रुत अज्ञान. विभंग ज्ञान किस को कहते हैं ? विभंग ज्ञान के अनेक भेद कहे हैं. ग्राम के
अनुसदक-बालब्रह्मचरािमुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
*.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी,