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सृत्र | अजोगी जहा अलेस्सा|सागारोवउत्ते अणागारोवउत्तेहिं जीवांगीदयवजो. तियभंगो
सवेयगा जहा सकसाई, इत्थीवेयग पुरिसवेयग नपुंसगेवेयगेसु जीवादिओ तियभंगो
णवरं नपुंसगवेदे एगिदिएसु अभंगय, अवेयगा जहा अकसाई ससरीरी जहा ओहि- ७८८ भावार्थ पृथिव्यादि पद में एक ही भांगा कहा. यह एक उपयोग से दुसरे उपयोग में जाना इस आश्री लीया गया है..
सिद्ध को सदाही उपयोग रहा हवा है तथापि साकार अनाकार उपयोग की वारंवार प्राप्ति हे सप्रदेशीपना व एकवार प्राप्ति होने से अप्रदेशी पना जानना. ऐसे बहुत जीव वारंवार पाकारोपयोग को प्राप्त हुवे सो सप्रदेशी एक भांगा, एक ही वक्त साकारोपयोग को प्राप्त हुए सो अप्रेदशी दूसरा भांगा, और वहीं साकारोपयोग एक वार व अनेक वार प्राप्त किया सो तीसरा भांगा, ऐसे ही अनाकारोपयोग का जानना. सवेदी जीव सकषायी जैसे कहना. स्त्री, वेदी परुषवेदी व नपंसक वेदी में जीवादि पद में तीन भांगे, मात्र नपुंसक वेद में एकेन्द्रिय में एक भांगा पावे, पुरुष वेदी व स्त्री वेदी मात्र देव, मनुष्य व तिर्यंच पंचेन्द्रिय में कहना. नपुंसक वेद में दो दंडक वर्जकर कहना. अवेदी अकषायी जैसे कहना. इस में जीव मनुष्य व सिद्ध ऐसे तीन पद कहना. सशरीरी के दोनों दंडक में जीव सप्रदेशी कहना क्यों की जीवों
को शरीर अनादि हैं. नरकादिक में तीन भांगे, एकेन्द्रिय में सप्रदेशी अपदेशी ऐसा एक भांगा, उदारिक * शशि के जीव पद व एकेन्द्रिय पद में तीसरा भांगा और शेष में तीन भांगे होवे. उदारिक शरीर नरक व है।
मनि श्री अमोलक ऋषिजी
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*