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भावाये
43 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 82
तेणं भंते! जीवा के महालया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोअणसहस्सं ॥ ५ ॥ तेणं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं बंधगा अबंधगा? गोयमा! णो अबंधगा बंधएवा बंधगावा एवं जाव अंतराइयस्स, णवरं आउयस्स पुच्छा ? गोयमा ! बंधएवा, अबंध.
एवा, बंधगावा. अबंधगावा. अहवा बंधएय अबंधएय, अहवा बंधएय अबंधगाय, हो जावे तो भी सब जीव नहीं नीकल सकते हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! उक्त जीवों कितनी अवगाहनावाले होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य अंगुल का असंख्यातवा भाग उत्कृष्ट एक हजार योजन अधिक ॥५॥ अहो भगवन् ! वे जीवों ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं या नहीं ? अहो गौतम ! अबंधक नहीं
है परंतु बंधक हैं, एक जीव आश्री एक वचन और बहुत जीव आश्री बहुवचन ऐसे दो भांगे पाते हैं। है इसी प्रकार आयुष्य कर्म छोडकर आठवे अंतराय कर्म तक कहना. आयुष्य कर्म को एक भव में एक ही
वक्त बांधते हैं इसलिये अबंध अवस्था भी पाती है इसलिये आयुष्य में बंध काल में बंधक और अबंध काल में अबंधक भी है बहुत जीव आश्री आयुष्य काल में बहुत जीव बंधक है और अबंधक काल में बहुत जीव अबंधक भी हैं. यों चार भांगे हुवे. ५ एक जीव बंधक एक जीव अबंधक एक जीव बंधक बहुत जीव अबंधक, बहुत जीव बंधक एक जीव बंधक अथवा बहुत जीव बंधक बहुत जीव अबंधक,
* प्रकाशक राजावहादुर लाला सुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी *