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शब्दार्थ दे०देव अयथाअपत्य. अ.अभिज्ञात हो० हैं पु०पूर्णभद्र मा० माणिभद्र साशालिभद्र सु०सुमन भद्र च० चक्र ।
रक्ष पु० पूर्णरक्ष स० सर्वाण स० सर्व यश स० सर्व कामसिद्ध अ० अमोघ अ० अशान्त सशक्र दे. देवेन्द्र IV. देवराजा की वे वैश्रमण म० महाराजा की दो टोपल्योपम की ठि० स्थिति प० प्ररूपी अ० यथा ।
अपत्य अ० अभिज्ञात दे देवों की ए० एक प० पल्योपम की ठि० स्थिति प०प्ररूपी ए० यह म०महर्दिक जा० यावत् वे वैश्रमण म. महाराजा से० ऐसे ही भ० भगवन् ॥ ३ ॥ ७॥ =
तंजहा-पुण्णभद्दे, माणिभदे, सालिभद्दे, सुमणभद्दे, चक्करक्खे, पुण्णरक्खे, सव्वाणे, सव्वजसे, सव्वकाम समिडे, अमोहे, असंते, ॥ सक्कस्सणं देविंदस्स देवरणो वे. समणस्स महारण्णो दो पलिओवमाइं ठिई प० ॥ अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता ए महिड्डीए जाव वेसमणे महाराया. सेवं भंते भंतेत्ति ॥ तइयरूर सत्तमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ३ ॥ ७ ॥
* भावार्थ वैश्रमण महाराजा को अपत्यवत् विनय करनेवाले देवों हैं. उन की दो पल्योपम की स्थिति कही है और
अपत्य देवों की एक पल्योपम की स्थिति कही है. अहो गौतम ! यह वैश्रमण की ऋद्धि यावत् महानु-37 भाग का वर्णन कहा ॥ १८ ॥ अहो भगवन् ! आप जैसे फरमाते हो वैसे ही हैं. यह तीसरा शतकका सातवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ३ ॥७॥
पंचमाङ्ग विवाह पण्णात्ति ( भगवती ) सूत्र 488
तीसरा शतकका सातवा उद्देशा 88
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