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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
ण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडिपुहुत्तं । एवं देसबंधतरपि । एवं मणुयस्सवि ॥ २२ ॥ जीवस्सणं भंते ! वाउकाइयत्ते नो वाउकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइय एगिदिय वेउव्विय पुच्छा ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट प्रत्येक पूर्व क्रोड. कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रेय शरीर को प्राप्त हुवा, वहां प्रथम समय में से सर्व बंधक हुवा फीर अंतर्मुहूर्त तक देश बंधक हुवा. उस में उदारिक का सर्व बंधक होकर एक समयतक देश बंधक हुवा और फीर वैक्रेय करने का विचार होगया और वैक्रेय करता प्रथम समय में सर्व बंधक ब्र हुवा. और उत्कृष्ट में तिर्यंच वैक्रेय को प्राप्त हुवा प्रथम समय में सर्व बंधक हुवा फीर देश बंधक हुवा तिर्यंच की स्थिति पूर्व क्रोड की होने से पूर्व क्रोड तक रहकर काल कर वहां ही उत्पन्न हुवा ऐसा सात आठ भव कर वहां ही उत्पन्न होकर फीर वैकेय करे तो प्रथम समय में सर्व बंधक होवे. ऐसे ही देश बंधक का अंतर जानना. जैसे तिर्यंच का कहा, वैसे ही मनुष्य का जानना ॥ २२ ॥ अहो भगान् ! जीव वायुकाया को प्राप्त हुवा और वहां से नो वायुकाया (पृथिव्यादि ) में उत्पन्न हुवा और वहां से फीर वायु काया में उत्पन्न हुवा ऐसा वायुकाय एकेन्द्रिय वैक्रेय शरीर बंध का कितने काल का अंतर कहा ? अब गौतमः सर्वधका अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंत काल. कोई जीव वायुकाय वैक्रेय शरीरको प्राप्त हुवा और प्रथम समय में सर्व बंधक होकर काल कर गया वहां से पृथिव्यादि में उत्पन्न हुवा और क्षुल्लक भवा
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *