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शब्दार्थ
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28 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र 338
भगवन् भुं• भोगवता किं. क्या बं० बांधे ५० करे चि० इकठाकरे उ० उपचिने ए० ऐसे ज जैसे ५० ०प्रथम स० शतक के न. नववे उ० उद्देशे में त० तैसे भा० कहना जा. यावत् सा. शाश्वत पं० पडित पं० पंडितपना अ० अशाश्वत से वह एक ऐसे भ० भगवन् ॥ ७॥८॥
अ० असंवृत भ• भगवन् अ० अनगार बा० बाह्य पो० पुद्गल अ० विनाग्रहण किये ५० समर्थ ए.१ म्माणं भंते ! भुंजमाणे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उवचिणाइ, एवं जहा पढमे सए नवमे उद्देसए तहा भाणियव्वं जाव सासए पंडिए पंडियत्तं असासयं । सेव भंते ! भंतेत्ति ॥ इइ सत्तमसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥७॥८॥*
असंवुडेणं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं, एगरूवं लगती है॥६॥ अहो भगवन् ! आधाकर्मी आहार भोगनेवाला क्या बांधे, क्या करे, क्या संचय करे ? इस का सब अधिकार प्रथम शतक का नववा उद्देशा जैसे जानना. यावत् पंडित शाश्वत है परंतु पंहितपना अशाश्वत है वहां तक कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं. यह सातवा शतक का आठवा उद्देशा समाप्त हुवा ॥७॥८॥
+ ___ आठवे उद्देशे में आधाकर्मी आहार का कथन किया. आधाकर्मी आहार असंवृति साधु भोगते हैं.
सातवा शतकका नावा उद्देशा
भावार्थ