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लब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६
स्सइकाइया सेसा जहा णेरइया जाव संतरपि बेमाणिया उवक्जंति, निरंतरंपि वेमाणिया उववज्जति ॥ संतरपि नेरइया उन्वटंति निरंतरंपि नेरइया उव्वटंति एवं जाव थणिय कमारा णो संतरं पढविकाइया उवटंति निरंतरं पढवी काइया उव्वदंति. एवं जात्र वणस्सइ काइया, सेसा जहा जेरइया, णवरं जोइसिया वेमाणिया चयंति अभिलायो जाव संतरंपि वेमाणिया चयंति निरंतरंपि वेमाणिया चयंति ॥ २८ ॥ सओ भंते! णेरइया उववजंति, असतो भंते ! जेरइया उववजंति? गंगेया ! सओ णेरइया
उववजंति णो असतो जेरइया उववजंति, एवं जाव वेमाणिया ॥ सओ भंते! णेरइया सहित वाणव्यंतर उद्वर्तते हैं या निरंतर उर्तते हैं अंतर सहित ज्योतिषी चवते हैं या निरंतर चवते व अंतर सहित वैमानिक चवते हैं या निरंतर वैमानिक चवते हैं ? अहो गांगेय ! अंतर सहित नारकी. उत्पन्न होते हैं और निरंतर उत्पन्न होते हैं यावत् अंतर सहित स्थनित कुमार उत्पन्न होते हैं निरंतर स्थनित कुमार उत्पन्न होते हैं पृथ्वीकाय सांतर उत्पन्न नहीं होते हैं परंतु निरंतर उत्पन्न होते हैं यावत् वनस्पति काय निरंतर
हैं यावत् अंतर सहित वैमानिक उत्पन्न होते हैं व निरंतर उत्पन्न होते हैं. अंतर सहित नारकी उद्धर्तते हैं निरंतर नारकी उद्वर्तते हैं ऐसे ही स्थनित कुमार तक कहना. और पृथ्वीकाय यावत् वनस्पतिकाय
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
वार्य।