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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
403 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
ज० जैसे के० केवल ज्ञानी अ० अनगार के० केवली समुद्धात स० समुद्धात किये हुवे को त० उस स० | समुद्रातसे प०निवर्तते अं०बीच में मं०दंडमें व वर्तते ते ० तेजस क० कार्माण बं० बंध में उ० उत्पन्न होवे किं० ( किस का कारन ता० तब से वे प० प्रदेश ए० एकत्रित भ० होते हैं ॥ १० ॥ से० वह किं० कौनसा ण्णप्पओग पच्चइए जण्णं केवलनाणिस्स अणगारस्स केवलिसमुग्धाएणं समोहयस्स तओ समुग्धायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरामंथे वट्टमाणस्स, तेयाकम्माणं बंधे समुपज, किं कारणं ताहे से पएसा एगन्तीगया भवंति सेत्तं पडुप्पण्णप्पओग पच्चइए ॥ सेत्तं सरीरबंधे || १० || से किं तं सरीरप्पओग बंधे ? सरीरप्पओगबंधे पंचविहे
( होवे, यह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक. अब प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्याधिक शरीर बंध किसे कहना ? अहो गौतम ! दंड, ( कपाट, मंथन व अंतरकरण लक्षण से केवली समुद्धात करनेवाले और उस समुद्धात से निवर्तनेवाले केवल ज्ञानी को पंचमादि समय रहे हुवे तंजस और कार्माण का जो बंध होता है उसे प्रत्युत्पन्न प्रत्ययिक शरीर बंध कहते हैं. यद्यपि षष्ठादि समय में तेजसादि शरीर संघात होता है, परंतु समय में ही यह होता है शेष में भूत पूर्वपना से होवे. अव किस कारन से ( केवलि समुद्धात से निवर्तत केवली के प्रदेश. जीव प्रदेश एकलपना को प्राप्त होवे ण का बंध हुवा
अभूत पूर्वपना से पंचम
ऐसा होवे सो बताते हैं. और इन से तेजस कार्मा
यह प्रत्युन्न प्रयोग प्रत्यायेक शरीर बंध कहीं. यह शरीरखं हुवा ॥ १० ॥ अव
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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