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पनि श्री अमोलक ऋषिजी
आवाथ
वाणिए, सिद्धे जहा जीवे ॥ जीवाणं पुच्छा, गोयमा! जीवा णो चरिमा अचरिमा ॥ - बेरइया चरिमावि अचरिमावि एवं जाव वेमाणिया सिद्धा जहा जीवा ॥ २७ ॥ आहारए सव्वत्थ एगत्तेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, पुहत्तेणं चरिमावि अचरिमावि ।। अणाहारओ जीवो सिद्धो एगत्तेणवि पोहत्तेणवि णो चरिमो, अचरिमो, सेसट्ठाणेसु
लगत्तपुहत्तेणं आहारउभे ॥ २८ ॥ भवाप्तिद्वीओ जीवपदे एगत्तपोहत्तेणं चरिमे चस्मि है स्ात् अचरिम हैं क्यों कि जो नारकी नरकगति में उत्पन्न होकर पुनः वहां से नीकले पीछे नरक में उत्पन्न होते हैं के अचरिम हैं. और नरक में मे नींकले पछि मिद्ध होजाते हैं. वे चरिम हैं. ऐसे ही वैमानिक पर्यंत कहना. सिद्ध का समुच्चय जीक जैसे बहना. यह एक जीव आश्री पृच्छा हुई, जन बहुत जीव आश्री पृच्छ
अहो भावन' बहत अब क्या चस्मि हैं या अचारम है ? अहो गौतमः, वहत जीव चरिम नहीं हैं परंतु अचरिम हैं. नारकी चरिम अचरिम्न दोनों हैं ऐसे ही वैमानिक तक सब दंडक का जानना. सिद्ध का समुच्चय जीव जैसे कहना ॥ २७ आहारक सबस्थान एक जीव आश्री स्यात् चरिम व स्याल अचरिम है. मोक्ष में जाने वाले चरिम और संसार में परिभ्रमण करने वाले अचरिम. अनेक आश्री चरिम अचरिम दोनों हैं अनाहारस जीबन सिद्ध एक अनेक आश्री चरिम नहीं है परंतु अचरिम है. शेष स्थान में एक अनेक आश्री आझरक जैसे कहना ॥ २८ ॥ भवासिद्धिक एक: अनेक आश्री नीवपद में
• प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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4. अनुवादक-बालब्रह्मचारी
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