________________
शब्दार्थ
428 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8882
भगवंत म. महावीर से म० मन में पु० पुछा हुवा म० मन से ही इ० यह ए. ऐसा वा०प्रश्न वा कहाहुवा ह० हृष्ठ जा० यावत् हि० हृदय स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर को पं० वंदना करते हैं न० नमस्कार करते हैं म० मन से ही सु० शुश्रुषा करते ण नमस्कार करते अ० सन्मुख जा. यावत् प० पर्युपासना करते हैं ॥ १२ ॥ ते. उस काल ते० उस समय में स० श्रमण भ० भगवंत का जे० ज्येष्ट अं० शिष्य इं० इन्द्रभूति अ० अनगार जा० यावत् अ० पास उ० ऊर्ध जा० जंघा जा. यावत् वि०विचरते
जाव अंतं करोहिंति ॥ तएणं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेण मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरियासमाणा, हट्ठट्ठ जाव हियया समणं भगवं महावीरं बंदंति णमंसंति, मणसा चेव सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा जाव पज्जुवासंति ॥ १२ ॥ तेणं कालेणं तेणं सभएणं समणरस भगव
ओ महावीरस्स जेटे अंतेवासी, इंदभूईणामं अणगारे जाव अदूरसामंते उढं जाणू यावत् सब दुःखों का अंत करेंगे. इस तरह मन से पूछे हुवे प्रश्नों का मन से ही उत्तर सुनकर उक्त देवों हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवे, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को बंदना नमस्कार किया और मन से ही शुश्रुषा व नमस्कार करते हुवे सन्मुख यावत् पर्युपासना करने लगे ॥१२॥ उस काल उस समयमें श्री श्रमण भगवंत के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति अनगार पास में ऊर्ध जानु व अधोशिर करके ध्यान करते हुवे विचरते है।
4.१४-80*> पांचवा शतकका चौथा उद्देशा 4842
भावार्थ