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सूत्र
भावार्थ
- अनुवादक - बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेणं अचरिमो होइ; अच्चतविजोगो जस्स, तेण भावेण सो चरिमो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति, जाब विहरइ || अट्ठार समस्त पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १८ ॥ १ ॥
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तेणं कालेणं तेणं समएणं विसाहा णामं णयरी होत्था, चण्णओ. सामी 'समोस जाव पज्जुवासइ ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया वज्रपाणी
वैसे ही सब स्थान एक आश्री अनेक आश्री जानना ॥ ४० ॥ इस चरिम व बदरीम का लक्षण कहते हैं. जो जिस भावको पुनः प्राप्त करेगा वह उस भाव से अचरिम है और जिस का जिस भाव का अत्यंत वियोग है अर्थात्र जिस भाव को पुनः प्राप्त नहीं करने का है वह उस भाव से चरिंम है. अहो भएकत्र ! आप के वचन सत्य हैं यों कह कर यावत् विचरने लगे. यह अठारहवा शतक का पहिला उद्देश संपूर्ण हुवा.
॥ १८ ॥ १॥
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प्रथम उदेस्से में चरम अचरम का कहा, दूसरे उद्देशे में चरमशरीरी शक्रेन्द्र का कथन करते हैं. उस काल उस समय में विशाख्या नामकी नगरी थी वह वर्णन गोग्य थी. भगवंत श्रीमहावीर स्वामी पधारे परिषदा (वंदन करने को आई यावत् पर्युपासना करने लगी. ॥ १ ॥ उस काल उस समय में हस्त में वज
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* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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