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अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
पाणाइवाए उवक्खाइजंति पुच्छा ? गोयमा ! अत्यंगइया पाणाइवाए उवक्खाइजति . जाव मिच्छादसणसल्लेवि उवक्खाइजंति, अत्थेगइया णो पाणाइवाए उवक्खाइजति णो मुसावाए उवक्खाइजति जाव णो मिच्छादसणसल्ले उवक्खाइज्जति ॥ जेसिं पियणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिति तेसिपिणं जीवाणं अत्थेगइयाणं विण्णाते णाणत्ते, अत्थेगइयाणं णो विण्णाए जाणत्ते, उववाओ सबओ जाव सन्वट्ठसिद्धाओ ॥ ठिती जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, छसमुग्घाया, केवलवजा, उबट्टणा सव्वत्थ गच्छंति जाव सब्वट्ठसिद्धत्ति ॥सेसं जहा वेइंदियानं
॥ ५ ॥ एएसिणं भंते ! बेइंदियाणं जाव पंचिंदियाणय कयरे कयरे आव विसेकितनेक प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का सेवन नहीं करते हैं. जिन जीवों की विराधना करते EC उन जीवों में कितनेक को ज्ञान है और कितनेक को ज्ञान नहीं है. उपपात सर्व स्थान यावत् सर्वार्थ सिद्ध, स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्न उत्कृष्ट तेत्तीस सागरोपम की, केवलसमुद्धात छोडकर छ समुद्धात कही है. उतना से सर्वत्र जाते हैं यावत् सर्वार्थ सिद्ध, शेष वेइन्द्रिय जैसे कहना. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! उन बइन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय में कौन किस से यावत् विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! सब से थोडे पंन्द्रिय इम
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालामसादजी *