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सूत्र
भावार्थ
42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
पंचजोयणसयाई उद्धुं उच्चत्तेणं, भढाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गय मूसियवण्णओ जाव पडिरूवं ॥ तरसणं पासाय वर्डिसगस्स उल्लोए पउमलय भत्तिचित्ते जात्र पडिरूवे ॥ तस्सणं पासाय बडिंसगस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभाए, मणीणं फासो, मणिपढिया, अटू जोअणिया जहा वेमाणियाणं. तीसेणं मणिपेढियाए उवरिं एवं देवस्यणिजे विउव्वाइ, सयणिज वण्णओ जाव पडिरूवे ॥ तत्थणं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं साईं सपरिवाराहिय दोहिय अणिएहिं तंजा - हाणिएणय गंधव्वाणिएणय सद्धिं महयाहय णट्ट जाव दिव्वाइं भोग भोगाई विभाग है यावत् मणि स्पर्श जैसा कोमल है. उस नेमी प्रतिरूपक के मध्य भाग में प्रासादों में मुकुट समान ऐसा एक प्रासाद का वैक्रेय करते हैं. वह पांचसो योजन का ऊंचा २५० योजन का चौडा है? वह प्रासाद उच्छ्रित यावत् प्रतिरूप है. उस प्रासाद को उपर का तला पद्म व लता जैसा विचित्र यावत् प्रतिरूप है. उस प्रासाद की अंदर का भूमिभाग बहुत समरमणीय है मणि (जैसा सुकुमाल स्पर्श वाला है, उस की मध्य में मणिपीठिका है. वह आठ योजन की लम्बी व चौडी है. उस मणि पीठिका के उपर एक देव शैय्या का वैक्रेय करते हैं वह वर्णन योग्य यावत् प्रति[रूप है. वहां पर शक देवेन्द्र अपने २ परिवारवाली आठ अग्रमहिषियों और नाटक करनेवाली व गायन
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