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________________ - 886 उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ ॥ ९॥ वाउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव जो भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइत्ताए उववजित्तए सेणं जहा पुढवीकाइओ तहा वाउकाइओवि णवरं वा- २२८७ उकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तंजहा वेदणासमुग्घाए, जाव वेउव्वियसमुग्याए, मारणांतिय समुग्घाएणं समोहणमाणे देसेणवा समोहए सेसं तंचे जाव अहे सत्तमा समोहयाओ ईसिप्पभाराए उववाएयव्वो ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ सत्तरसम स्सय दसमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ १७ !। १०॥ भावार्थ उद्देशा संपूर्ण हुवा ॥ १७ ॥ ९॥ E अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में वायुकाया मारणांतिक समुद्धात करके यावत् सौधर्म देवलोक में बायुकायापने उत्पन्न होने को योग्य है वगैरह सब पृथ्वीकाया जैसे कहना. विशेष में वायुकाया को चार समुद्धात कही. जिन के नाम. वेदना समुद्धात यावत् वैक्रेय समुद्धात. मारणांतिक समुद्घात करते देश से समुद्रात करे शेष वैसे ही जानना यावत् सातवी पृथ्वीतक. ईपत्मारभार में से उत्पन्न होने का. अहो 17 भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह सत्तरहना शतक का दशवा उद्देशा समाप्त हुआ. ॥ १७ ॥ १० ॥ १ ॥ पंचमांग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र सत्तरहवा शतक का दशवा उद्देशा 9887
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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