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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
4808- पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
म० बडा प० पताका का सं० संस्थानरूप वि० विकुर्वणा करे || ६ || प० समर्थ मं भगवन् वा० वायु काय ए० एक म० बडा प० पताका रूप की वि०विकुर्वणा कर अ० अनेक जो० योजन ग० जाने को ६० हां प० समर्थ से० वह किं० क्या आ० आत्म ऋद्धि से ग० जावे प० दूसरे की ऋद्धि से ग० जावे गो० गौतम आ० आत्म ऋद्धि से णो० नहीं प० दूसरे की ऋद्धि से ग० जावे ज० जैसे आ० आत्म ऋद्धि से गोयमा ! णो इट्टे समट्ठे । बाउकाएणं विकुव्यमाणा एंगं महं पडागा संठियंरूवं वि कुव्व ॥ ६ ॥ पणं भंते ! बाउकाए एगं महं पंडागासंठियं रूवं विउन्वित्ता अणेगाई जोयणाई गमित्त ? हंता पभू । से भंते ! किं आयढीए गच्छइ परिड्डीए गच्छ ? गोयमा ! आयड्डीए गच्छइ णो परिड्डीए गच्छइ । जहा आयड्डीए एवं चेत्र { योग्य नहीं है. वायुकाय वैक्रेय समुद्वात से मात्र पताका का संस्थानवाला रूप बनाती है ॥ ६ ॥ अहो भगवन् ! वायुकाय वैक्रेय समुद्वात से पताका रूप मंठाण का वैक्रेय बना करके क्या अनेक योजन तक जासकती है ? हां गौतम ! वायुकाय पताका का रूप बनाकर अनेक योजन तक जासकती है. अहो { भगवन् ! वह क्या स्वतः की ऋद्धि से जाती है या अन्य की ऋद्धि से जाती है ? अहो गौतम ! स्वतः की ऋद्धि से जा सकती है परंतु अन्य की ऋद्धिं से नहीं जासकती है. ऐसे ही स्वतः के कर्म से जाती परंतु अन्य के कर्म से नहीं जाती है, स्वतः के प्रयोग से जा सकती है परंतु अन्य के प्रयोग से नहीं
तीसरा शतकका चौथा उद्देशा
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