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शब्दार्थ |
न
सूत्र
भावार्थ
ॐ पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
ऊडे ॥ ४ ॥ से० वह ज जैसे के कोई पुरुष ए० एकदिशा में १० लांठी का करके चि० खडारहे। ॥ ५ ॥ अ० अनगार भं० भगवन् वा बाह्य पो० पुद्गल अ० विना ग्रहण किये प० समर्थ ए० एक म ॥ ४ ॥ से जहा नामए केपुरिसे एगओ पल्हत्थियं काउं चिट्ठेजा, एवामेव अणगारे भावियप्पा तंत्र जांच विकुव्विसुवा ३ । एवं दुहओ पल्हत्थियंपि । से जहा नामए केइ पुरिसे एगओ पलियंकं काठं चिट्टिज्जा तं चैव विकुव्विसुवा ३ । एवं दुहओ पलिपि || ५ || अणगारेणं भंते ! भाविअप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पभू एवं महं आसरूवंवा, हत्थिरूवंवा, सीहरूवं वा बग्घ वग्ग-दीविय -अच्छ-तरच्छ- परासरकार कहा वैसे ही यहां जानना ऐने ही दो उपवितों का जानना ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ पल्हांटी से खड़ा रहता है, ऐसे ही क्या भावितात्मा अनगार आकाश में गमन कर सकते हैं ? हां गौतम ! वे आकाश में गमन कर सकते हैं यावत् एक लक्ष योजन जम्बूद्वीप भर सकते हैं. ऐसे दो पल्हांडी से भी आकाश में जा सकते हैं. ऐसे ही एक पर्यकासन और दो तरफ पर्यकासन मे आकाश में जा सकते हैं यावत् एक लक्ष योजन का जम्बूद्रीप भर सकते है. परंतु इतना किसीने किया नहीं, करते नहीं व करेंगे नहीं. ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! लब्धिवंत भावितात्मा अनगार बाहिर के पुद्गल ग्रहण किये बिना क्या अश्व का रूम, हस्ती का रूप सिंह का रूप, व्याघ्र का रूप, चित्ता का
20 तीसरा शतक का पांचवा उद्देशा -
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