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श्री अमोलक ऋषिजी !
भावार्थ
नाव अत्थेगइए न बंधी न बंधइ नबंधिस्सइ ॥ गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ एवं जाव अत्थेगइए नबंधी बंधइ बंधिस्सइ, णो चेवणं नबंधी बंधइ न बंधिस्सइ,अत्थेगइए नबंधी नबंधड् बंधिस्सइ, अत्थेगइएन बंधी नबंधइ नबंधि
स्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बंधइ, साइयं अपज्जवत्तियं बंधइ,अणाइयं नहीं किया वर्तमान में उपशान्त मोह होने से बांधता है, और अनागत में भी बंध करेगा ६ क्षीण मोह
नहीं होने से गतकाल में बंध नहीं किया, वर्तमान में क्षीण मोह होने से बांधता है और अनागत में शैलेशी अ कपना को प्राप्त होने से बंध नहीं करेगा ७ किसी भव्य जीव ने गतकाल में बंध नहीं कीया, वर्षमान में .
नहीं बंधता है अनागत में क्षपक होगा नव बंध करेगा ८ अभव्य जीव ने गतकाल में नहीं बंधा वर्तमान में नहीं बंधता है व अनागत में बंधेगाभी नहीं क्योंकी यह प्रथप गुणस्थान नहीं छोडता है. अब एक भव आश्री ईपिथिक कर्म पुद्गल का ग्रहण रूप आकर्ष सो ग्रहणाकर्ष उस आश्री किसी दीर्घ आयुष्य वाले केवलज्ञानी ने मतकाल में ईर्यापथिक क्रिया का बंध किया, वर्तमान में करते हैं और अनामत में करेंगे २ केवल ज्ञानी ने गत काल में ईर्यापरि क्रिया का बंध किया. वर्तमान में करते हैं, और अनागत में शैलेशीपना से नहीं करेगा. ३ कोई जीव उपशम श्रेणी पर चडकर पीछा पडा उसने गतकाल में बंध किया, वर्तमान में नहीं वंधता है और
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *