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शब्दाथा
4 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋार्षजी
उस को ए. ऐसा भ० होवे ए. यह वा० घाणारसी न० नगरी ए. यह रा. राजगृह न० नगर ए.. यह अं० बीच में ज० देश नो० नहीं ए. यह मु० मुझे वी० वीर्य लब्धि वे० वैक्रेय लब्धि वि. विभंग ज्ञान लब्धि इ० ऋद्धि जु० द्युति ज० यश ब० बल वी० वीर्य पु० पुरुषात्कार पराक्रम ल० लब्ध प.
जाणइ पासइ, अण्णहाभावं जाणइ पासइ ॥ से केणटेणं भंते आव पासइ ? गोयमा ! तरस खलु एवं भवइ एस खलु वाणारसीए नयरीए एस खलु रायगिहे नयरे, एस खलु अंतरा एगं महं जणवयवग्गं, नो खलु एस महं वीरियलही वेउन्विय.
लही, विभंगनाणलही, इट्ठी, जुत्ती, जसे, बले, वीरिए. पुरिसक्कारपरक्कमे लडे पत्ते अअहो भगवन् ! वह किस कारन से तथा भाव जाने व देखे अन्यथा भाष जाने नहीं देखे नहीं ? अहो गौतम ! उसे ऐमा विचार हो कि यह बाणारसी नगरी है, यह राजगृही नगरी है. यह इन दोनों की बीच का प्रदेश है. परंतु वह ऐसा नहीं जान सकता है कि यह मुझे वीर्य लब्धि, वैकेय लब्धि, ज्ञान लब्धि, ऋद्धि, द्युति, कान्ति, यश, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम से मीला है, प्राप्त हुवा है यावत् सन्मुख हुवा है. इस तरह उसे दर्शन की विपरीतता से मति की विपरीतता होती है अर्थात् ये मेरे बनाये हुवे नहीं है परंतु स्वाभाविक है यो विभंग ज्ञान से विपरीत मानता है. इसलिये अहो गौतम ! ऐसा कहा है। कि यथार्थ भाव नहीं जान व देख सकता है परंतु अन्यथा भाव जान व देख सकता है ॥ ३ ॥ अमायी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालापसादगी*
भावार्थ