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शब्दार्थ पान अ० सन्मुख हुवे म उस मे० उमदं दर्शन की वि० विपरीतता भ-हाव मे वह तेलिये जायावत
पा देखे ॥ ३ ॥ अः अनगार भं भगवन अ० अमाथी म. सम्यक दृष्टि बी० वीर्य लब्धि में वक्रय भिसमण्णागए से से सण विवच्चा से भवइ से तेणट्रेणं जाव पासइ ॥ ३ ॥ अ. णगारणं भंते ! भावियप्पा अमायी सम्मादिट्टी नीरियलहीए, बेउब्विय लडीए, ओहि नाणलडीए गयमिहे नयरे समाहए समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रुवाई जाणइ पासइ ? हंता जाणइ पासइ । से भंते ! किं तहाभा जाणइ पासइ अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तहा भावं जाणइ पासइ, णो अण्णहाभावं जाणइ पासइ
से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं रायगिहे भावार्थसम्यग् दृष्टि अनगार वीर्य लब्धि, वैक्रेय लब्धि व अवधि ज्ञान की लब्धि से राजगृह नगर की विकुर्वणा
कर बाणारसी नगरी में रहे हुवे मनुष्य पशु वगैरह को क्या जान व देख सके ? हां गौतम : वे जान व देख सके. अहो गौतम : वे यथातथ्य भाव जाने व देखे या अन्यथा भाव जाने व देखे ? अहो or
गौतम : वे यथातथ्य भाव जाने देख परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारण से वे १ यथातथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं ? अहो गौतम : उन को ऐसा विचार
होरे कि मैं राजगृही नगरी की विकर्वणा करके बाणाग्मी नगरी में मनुष्यादिक के रूप देखता हूं इस
ago पंचमांग दिवाव पण्णात्ति ( भगवती
तीसरा शतक का छट्टा उद्देशा