________________
IN
जीवा धम्मेवि ट्ठिया अहम्मेविट्ठिया, धम्माधम्मेविट्ठिया ॥ जेरइयाणं भंते ! पुच्छा ? गोयमा ! णेरइया णो धमट्टिया, अहम्मट्ठिया, णो धम्माधम्मटिया, एवं जाव चउरिदियागं ॥ पंचिंदियतिरिवल जोणियागं एच् ? भोयमा ! पंचिंदियतिरिक्ख जोणिया को धम्मेट्ठिया, अहम्मेटिया, धमाधम्नेभिया ।। मणुस्ना जहा जीवा ॥ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिया जहा रइया ॥ ३ ॥ अण्णउत्थियाणं भंते ! एव. माइक्खंति जाव परूति एवं खलु सनगा पाडिया समणोवासमा बालपंडिया
जस्सणं एगपाणाएवि दंडे अणिक्खित्ते सेणे एगंतेवालोत्त वत्तव्यं लिया, से कहमेयं भावाथ अहो गौतम ! जीव धर्म में स्थित हैं, अधर्म में स्थित च धर्माधर्य में स्थित हैं. नारकी की पृच्छा ?
नारकी ी में स्थित नहीं हैं अधर्म में स्थित हैं और धर्माधर्म में स्थित नहीं हैं. ऐसे ही चतुन्द्रिय पर्यंत कहना. तिर्यंच पंथन्द्रिय धर्म में स्थित परंतु अपर्म व धर्माधर्ष में स्थित हैं. मनुष्य धर्म अधर्म व धर्माधर्म में स्थिा है. पण पंतर ज्योतिषी व वैमानिक का नारकी जैस कहा ॥ ३ ॥ अहाँ भगवन् ! अन्यतोर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपत हैं कि श्रमण पंडित हैं श्रणेपासक बालपंडित हैं और जिसने एक प्राणी का घात का परिहार नहीं किया है वह एकान्त बाल है. तो अहा भगवन् ! यह किसी
अनुवादक-शालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक प्र.पिजी gk
*प्रकाशक राजावदर लाला मुखदवसहायजी ज्वालामनादनी*
|
*