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शब्दार्थ
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी !
दे० देवलोक में दे० देवपने उ० उत्पन्न भ० होता है ॥५॥क० कितने प्रकार के दे० देवलोक प० अरूप:। गो० गौतम च० चार प्रकार के दे देवलोक ५० प्ररूपे भ० भवनवासी जा० यावत् वे• वैमानिक देव • वह ए. ऐसे भ० भगवन ॥ ८ ॥५॥
स. श्रमणोपासक भं० भगवन् त० तथा रुप स० श्रमण मा० माहण को फा० फासुक ए. एपनीक अ० अशन पा० पान खा. खादिम सा स्वादिम प० देता हुवा किं. क्या के करे गो गौतम ए.
देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ ५॥ कइविहाणं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउन्विहा देवलोगा पण्णत्ता तंजहा-भवणवासी जाव वेमाणिया देवा ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ अट्ठमसए पंचमो उद्देसा सम्मत्तो ॥ ८ ॥ ५ ॥
x x . समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणंवा माहणंवा फामुएसणिज्जेणं असण. पाण खाइम साइमेणं पडिलाभेमाणस किं कजइ ? गोयमा ! एंगतसो से निजरा देवतापने उत्पन्न होते हैं ॥ ५ ॥ अहो भगवन् ! देवलोक कितने कहे हैं ? अहो गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे हैं भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी व वैमा िक. अहो भगवन् ! आफ्के वचन सत्य हैं. यह आठवा शतक का पांचवा उद्दशा पूर्ण हुवा ॥ ८ ॥५॥
. पांच उद्देशे में श्रमणोपासक की करणी कही. छठे उद्देशे में श्रमणोपासक का दानादि अधिकार
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावार्थ