________________
माणे किं अहिगरणी अधिकरणं, एवं चेव॥एवं जाव मणुस्से ॥एवं वेउब्विय सरीरंपि, णवरं जस्स अत्थि ॥ जीवेणं भंते ! आहारग सरीरं णिवत्तिएमाणे किं अधिगरणी पुच्छा ? गोयमा ! अधिगरणीवि, अधिगरणंपि ॥ से केणटेणं जाव अधिगरणंपि ? गोयमा ! पमादं पडुच्च, से तेण?णं जाव अधिगरणंपि, एवं मणुस्सेवि ॥ तेयासरीरं जहा ओरालियं णवरं सव्व जीवाणं भाणियव्वं ॥ एवं कम्मग सरीरंपि ॥ १२ ॥
जीवेणं भंते ! सोइंदियं णिव्यत्तिएमाणे किं अधिगरणी अधिगरणं ? एवं जहेव भावार्थ तिथंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य का जानना, ऐसे ही जिस को वैक्रय शरीर हैं उन को भी कहना अहो
भगवन् ! आहारक शरीर वाला जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है ? अहो गौतम ! अधिकरणी है और अधिकरण भी है. अहो भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है कि आहारक शरीर वाला जीव अधिकरणी है और अधिकरण भी है. अहो गौतम ! प्रमाद आश्री इसलिये ऐसा कहागया है यावत् अधिकरण भी है ऐसे ही मनुष्य का जानना (आहारक शरीर मात्र मनुष्य को होता है) तेजस और
कार्माण का उदारिक शरीर जैसे जानना. परंतु इम में सब जीव कहना ॥ १२ ॥ अहो भगवन् ! 19श्रोत्रेन्द्रिय वाला जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है ? अहो गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय वाला जीव अधि:
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी gh
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालामसादजी*
अनुवादक-म