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शब्दार्थ |
सूत्र
२०३ अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषीजी -
भावार्थ
(नि० निश्चय छ० उदिशा में || २ || लो० लोक का अंत भं० भगवन् अ० अलोक का अंतको फु० स्पर्श ता है अ० अलोक का अंत लो० लोक का अंत को फु० स्पर्शता है हं०हां गो० गौतम लो० लोक का अंत अ० अलोक का अंतको फु०स्पर्शता है अ०अलोक का अंत लो० लोक का अंत को फु· स्पर्शता है ते० उस को भं० भगवन् किं क्या पु० स्पर्श फु स्पर्शता है अः अस्पर्श फु० स्पर्शता है जा० यावत् निः निश्चय छ० छादेशा में फु स्पर्शता है ॥ ३ ॥ दी द्वीप का अंत मं० भगवन् सा सागर का अंत सव्वंति जान बत्तव्वं सिया । तं ते! किं पुढं फुसइ जात्र नियमा छद्दिसिं ॥ २ ॥ लोयंते भंते ! अलोयतं फुसइ, अलोयतेवि लोयतं फुरुइ ? हंता गोयमा ! लोयंते अलोयतं फुसइ, अलोयतेवि लायंतं फुसइ ॥ तं भंते : किं पुठ्ठे फुसइ अपुटुं कुसई ? जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥ ३ ॥ दीवंते भंते ! सागरंतं फुसइ, साग
अंत अक के
स्पर्श कर स्पर्शता है ||२|| अहो भगवन् ! क्या लोक का अंत अलोक के अंत को स्पर्शता है. या अलोक का अंत लोक के अंत को स्पर्शता है ? हां गौतम ! लोक का अंत को स्पर्शता है व अलोक का अंत लक के अंत की स्पर्शता है. अहो भगवन ! वह क्या स्पर्शकर स्पर्शता है या विना स्पर्श पीता है ! गौतम ! निश्चय ही दिशा में स्पीकर स्पर्शता है परंतु विना स्पर्श नहीं (स्पर्शता है ॥ ३ ॥ असे भगवन ! द्वीप का अंत सागर-समुद्र के अंत को स्पर्शता है या सागर का अंत
* प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्याचामादजी
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