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शब्दार्थ आ० आराधक वि० विसंधक गो० गौतम आ० आराधक नो नहीं वि. विराधक ॥७॥पूर्ववत्॥८-१॥
हिया ? गोयमा ! आराहिया णो विराहिया, साय संपाट्ठिया जहा निगंथरस तिाणगमा भणिया, एवं निग्गंधीएवि तिण्णि आलायगा भाणियन्वा, जाव आराहिया नो विराहिया ॥ ९ ॥ से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ आराहए नो विराहए ? गोयमा ! से जहा नामए केइ पुरिसे एगमहं उण्णालोमंबा, गयलोमंवा, आलोचना यावत् तपकर्भ अंगीकार करूंगी ऐसा विचार करके नीकली हुई साध्वी प्रवर्तिनी को असंप्राप्त होरे और वह वातादि कारन से मूञ्छित होने से बोलसके नहीं इस से आलोचना करने का परिणाम होने पर आलोचना करसके नहीं तो क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो गौतम ! उस साम्बी को आराधक कहना परंतु विराधक नहीं कहना ऐसे ही प्रर्वतिनी को असंप्राप्त), होचे और स्वयं मूच्छित होवे, प्रवर्तिनी काल करे अथवा स्वयं काल कर जावे ऐसे चार भांगे. जैसे अप्राप्त
भांगे वैसे ही प्राप्त के भी चार भांगे मीलकर आठ भांगे कहना, आठ भांगे पिण्ड ग्रहण करने के, आठ भांगे स्वाध्यायभूमि व स्थंडिलभूमि में जाने के, वैसे ही आठ भांगे ग्रामानुग्राम विहार करने के
जानना. ॥ ९ ॥ अहो भगवन् ऐसा विचार करनेवाले आहाधक हैं परंतु विराधक नहीं है ऐसा किस 1०तरह जानना ? अहो गौतम ! जैसे कोई पुरुष बकरे के रोम (बाल) गज के बाल, शणलोम. कापूस ।
विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 8%8A
भावार्थ
आठवा शतकका छठा उद्देशा
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