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शब्दार्थ ।
आलावगा भाणियन्या जात्र नो विराहए ॥७॥ निगथेणय गामाणुगामं दृइज्जमाणेणं अण्णयरे अकिञ्चटाणे पडिसेविए तस्सणं एवं भवइ इहेब ताव एत्थवि ते चेव अटु आलावगा भाणियन्वा जाव नो विराहए ॥८॥ निग्गंथीएय गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए अणुप्पविटाए अण्णयरे. अकिञ्चट्टाणे पडिसेविए, तीसेणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवो. कम्म पडिवज्जामि, तओपच्छा वित्तिणीए अंतिए आलोएस्सामि जाव पाडिवानिस्सामि
साय संपट्टिया असंपत्ता पवित्तिणीय अमुहा सिया साणं भंते ! किं आराहिया विराभावार्थ निर्ग्रन्थ को दोष लगे तो आलोचना के आठ आलापक जानना ॥ ७ ॥ ग्रामानुग्राम जाते किसी साधु को
दोष लगे तो पहिले उन को ऐसा विचार होचे कि मैं इस दोष को यहांपर आलोवू यावत् प्रायश्चित्त कर के तप कर्म अंगीकार करूं फीर स्थविर की पास जाकर इस की आलोचना करूंगा यावत् तप कर्म अंगीकार करूंगा वगैरह उपर्युक्त जैसे प्राप्त अप्राप्त के पाठ आलापक जानना. ॥८॥ जैसे साधु आश्री २४ आलापक को वैत हो २४ आलारक साधी 'आश्री बताते गहस्थ के गृह में आहारादि के लिये गई।
हुई साधी को किसी प्रकार का दोष लगे फीर उस को ऐसा विचार होवे कि : पहिले मैं यहां पर इस संस्थान की आलोचना करूं यावत् तपकर्म अंगीकार कर फीर प्रवर्तिनी ( मुख्य साध्वी ) की पास इस की
48 अनुवादक-पालनमचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
.प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायमी आलाप्रतादजी *
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