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शब्दार्थ
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48 पंचभाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र 4gh
से० वह सं० मंस्थित अ असंप्राप्त अ० आत्मा से अ० अमुख सि० होवे से उस को भ० भगवन् कि क्या आ. आराश्क वि०विराधक गो० गौतम आ० आराधक नो० नहीं वि० विराधक से उम को सं० संप्रस्थित अ. असंप्राप्त थे० स्थविर का काल करके से वह भ० भगवन् कि
अमुहा सिया सेणं भंते ! किं आराहए विराहए ?गोयमा ! आराहए णो विराहए ॥ सेय संपट्रिए संपत्ते अप्पणाय एवं संपत्तेणवि चत्तारि आलावगा भाणियब्बा, जहेव असंपत्तेणं निग्गंथणय बहिया वियारभूमिवा विहारभूभिवा निक्खतेणं अण्णयरे
अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्सणं एवं भवइ इहेव ताव अहं एवं एत्थवि तेचेव अट्ठ होने से बोल सके नहीं इससे वह साधु आलोचना करसके नहीं, तब अहो भगवन् ! क्या उसे आराधक कहना या विराधक कहना ? अहो गौतम ! उसे आराधक कहना परंतु विराधक नहीं कहना. ऐसेही स्थविर मालपर वातादि दोष से स्वयं मूर्छित होकर बोल सके नहीं, आचार्य कालकरजावे अथवा स्वयं काल कर जाये और आलोचना करने का परिणाम होने पर आलोचना करके नहीं तो भी वह अराधक, होता है परंतु विराधक नहीं होता है. इस तरह प्राप्त अमाप्त के आठ आलापक जानना. गृहस्थ के गृह आहार लेते दोष लगे उसके आठ आलापक कहे वैसे ही स्वाध्याय भूमि व स्थंडिल भूमि में गये हुवे
आठवा शतक का छठा उद्देशा 8
भावाथे
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