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शब्दार्थ
सूत्र
अनुवादक-बालब्रह्मचारी पनि श्रा अमोलक ऋपिजी
सब दःख प० रहित ण. विशेष ति० त्रिदंड कुं. कुंडिका जा० यावत् धा० धातु रक्तव. वस्त्र प.. पहिना हवा १० पतित वि० विभंग ज्ञान आ० आलंभिका ण नंगरी की म० बीच में से णि नीकलकर में जा. यावत् उ० ईशान कौन में अ० जाकर ति त्रिदंड कुं० कुंडिका ज० जैसे खं० स्कंदक प०अवजित से शेष ज. जैसे सि० शिव जा० यावत् अ. अव्यावाध सो० सुख अ० अनुभवते हैं सा० शाश्वत सि० सिद्ध से वैसे ही भं० भगवन् ॥ ११ ॥॥ १२॥
दुक्खप्पहीणे णवरं तिदंडकुंडियं जाव धाउरत्तवत्थ परिहिए परिवडियविभंगे, आलं. भियं णयरं मझं मझेणं जिग्गच्छइ जाव' उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ २ त्ता, तिदंडं कुंडियंच जहा खंदओ जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स जाव अव्वावाहं सोक्ख मणुभवंति सासयंसिद्धा ॥ सेवं भंते भंते त्ति ॥ एगारस सयस्स दुवाल
समो उद्देसो सम्मत्तो ॥ ११ ॥ १२ ॥ एगारसमं सयं सम्मत्तं ॥ ११॥ * परिव्राजक का कथन असत्य है ऐसा सुनकर उन को संकल्प विकल्प होने लगा और इस तरह करते उस का विभंग ज्ञान नष्ट होगया. फीर शिवराजर्षि तरह श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पाम आया धर्मोपदेश मुना, त्रिदंड, कुंड वगैरह डालकर ईशान कौन में जाकर स्कंदक संन्यासी जैसे प्रवजित हवा. शेष तब शिवराजर्षि जैसे कहना यावत् सब कर्मों का क्षय करके मिझे, बुझे यावत् सब दुःखों से रहित हुए और अनुत्तर प्रधान मोक्ष का सुख अनुभवने लगे. अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह अग्यारहवा शतक का बारहवा उद्दशा समाप्त हुवा ॥ ११ ॥ १२ ॥ यह अग्यारहवा शतक समाप्त हुवा ॥ ११ ॥
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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भावार्थ