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कसायअंबिलमहुराई, फासओ कक्खड मउय गुरुय लहुय सीय उसिण गिद्ध लुक्खाई, अण्णमण्ण बद्धाइं अण्णमण्ण पुट्ठाई जाव अण्णमण्ण घडत्ताए चिटुंति ? । हंता अत्थि ॥ एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ अत्थिणं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे, एवं चेव ॥ एवं जाव ईसिप्पभाराए पुढवीए ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाव विहरइ ॥४॥ तएणं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ * ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे णयरे होत्था, वण्णओ, तत्थणं वाणियगामे णयरे सोमिले
णामं माहणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए, रिउव्वेय जाव सुपरिणिट्ठिए पंचण्हं भावार्थ : श्वेत, गंध से सुरभिगंधवाले व दुरभिगंधवाले रस से तिक्त कटुक, कषायले, अम्बट व मधुर रसवाले; स्पर्श से |
कर्कश, मृदु, गुरु लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध व रूक्ष स्पर्शवाले द्रव्य परस्पर बंधे हुव, परस्पर स्पर्श हुवे यावत् परस्पर मीले हुवे क्या रहते हैं ? हां गोतम ! रहते हैं. ऐसे ही नीचे की सातवी पृथ्वी तक कहना. सौधर्म - देवलोक यावत् ईषत्पागभार पृथ्वी का भी ऐसे ही जानना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यों कहकर विचरने लगे ॥४॥ फीर श्रमण भगवंत महावीर बाहिर विचरने लगे. उस काल उस समय में बाणिज्य ग्राम नाम का नगर था.. उस वाणिज्य ग्राम नगर में सोमिल ब्राह्मण रहता था. वह ऋद्धिवंत यावत् ।
REA पंचांग विवाहण्णत्ति ( भगवती) पत्र 8%80
Annawwanmaw
488- अठारहवा शतक का दशना उद्देशान