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शब्दार्थ / बहुते च० चार छ० छ अ० आठ द० दश दु० बारहे सा० अर्ध मास मा० मासखमण वि० विचित्र त तप कर्म से अ० आत्मा को भा विचारते वि० विचरते है. ॥२६॥ त ० तब खं खंदक ते ० उस उ० उदार वि विपुलं प० गुरु की आज्ञा से कराया हुवा ( प० प्रमाद रहित कराया ) प० मान पूर्वक रहा हुवा क० कल्याण कारी सिं० मोक्ष के हेतु भूत ध० धर्म धनवाला मं० मंगल सन् सुशोभित प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त उ० उत्तम उ० उदार म० बहुत प्रभाव वाला त० तर कर्म से सु० शुष्क लु० रुक्ष नि० मांस रहित अ०
सूत्र
भावार्थ
१०३ अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
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वागच्छइत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, बहूहिं चउत्थ छट्टूमदसम दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचितहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भात्रेमाणे विहर ॥ २६ ॥ तएणं सेखंदए अणगारे तेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेष्यंं पग्गाहिएणं कलाणेणं, सित्रेणं, धन्नेणं, मंगल्लेणं, सस्सिरीएणं, उदग्गेणं, उदत्तेणं, उत्तमेणं उदारणं, महाणुभागेणं,
स्वामी को वंदना नमस्कार कर एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास यावत् पंदरह उपवास, मासे स्वमण ऐसे विविध प्रकार के तप करते हुवे खंदक अनार विवरने लगे ॥ २६ ॥ उन समय में खंदक अ गगार आशंसा रहिन सो उदार, प्रज्ञान, विपुल, गुरुकी आज्ञा से कराया हुचा, बहुत मान पूर्वक कराया हुवा, कल्याण* कारी, मंगलकारी, धर्मरू घन करनेवाला, सुशोभनिक, उत्तरोत्तर वृद्धि करनेवाला, उत्तम, उदार व
* प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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