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42 अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
विप्पजहिता पुरिमंट्ठाणं उवसंपजित्ताणं विहरंति, एवामेव तेवि जीवा पवओविवमाणा अज्झवसाणाणिव्यात्तिएणं करणोवाएणं सेयकाले तं भावं विप्पजहित्ता पुरिमभव उव. संपजित्ताणं विहरंति ॥ १ ॥ ते सिणं भंते ! जीवाणं कहं सिहागति कहं सिहेगती विसए पण्णते ? गोयमा ! से जहा णामए केइपुरिसे तरुणे बलवं एवं जहा चउद्दसमस र पढमुद्देसए जाव तिसमएणं वा विग्गहेणं उववजंति ॥ ते सिणं जीवाणं
तहा सिहागई तहा सीहेगति विसए पण्णत्ते ॥ २ ॥ तेणं भंते ! जीवा कहं परभ(कुदता हुवा जाने वाला ) उत्पलुति करता हुवा तथाविध अध्यवसाय वाली क्रियाओं के उपाय से जिस स्थान में रहा हुवा है उस स्थान को छोडकर आगामिक काल में पूर्व के स्थान को प्राप्त होता हुवा विचरे, वैसे ही नारकी के जीव भी प्लपक की तरह उस्प्लुति करता हुवा स्थातांतर प्राप्ति के हेतु भूत कर्म में उत्प्लुति रूप उपाय से आगामिक काल में मनुष्य भव छोडकर नरक भव अंगीकार करते हुवे विचरते है ? ॥१॥ अहो भगवन्! उनकी कैसी शीघ्रगति व कैसा शीघूगति को विषय कहा है ?अहो गौतम! जैसे चौदह में शतक के बारवे उद्देशे में कहा वैसे कोइ बलवान तरुण पुरुष यावत् तीन समय में विग्रहगति से उत्पन्न होवे उन जीवों की ऐसी शीघ्रगति व शीघ्रगतिका विषय कहा है ॥२॥ अहो भगवन् ! वे जीवों परमत्र कि
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी*
भावार्थ