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42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी
तो उववज्जति, तिरिक्ख-मणुस्स देवहितों उबवज्जति ? गोयमा ! णोणेरइएहितो उववज्जति तिरिक्ख-मणुस्सेहिंतो उववजंति णो देवहितो उववजंति एवं जहेव णेरड्य उद्देसए जाव पजत्त असण्णि पंचिंदिय तिरिक्खजोणिएणं भंते ! जे भविए असुर
| २५७८ कुमारेसु उववज्जित्तए सेणं भंते ! केवइय काल ट्ठिईएसु उववजेज्जा ? गोयमा । जहण्णेणं दसवाससहस्सट्टिईएसु उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइ भाग टिईएसु, उववज्जेज्जा ॥ तेणं भंते ! जीवा एवं रयणप्पभागमग सरिसा णवविगमगा भाणियव्या
णवरं जाहे अप्पणा जहण्णकालट्ठिईओ भवइ, ताहे अज्झवसाणा पसत्था जो प्रथम उद्देशे जैसे द्वारों के नाम जानना. राजगृह नगर में यावत् ऐसा बोले अहो भगवन् ! असुरकुमार कहां से उत्पन्न होते हैं ? क्या नरक में से. तिर्यंच, मनुष्य या देव में से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम !, नारकी में से नहीं उत्पन्न होते हैं परंतु तियेच व मनुष्य में मे उत्पन्न होते हैं और देव में से नहीं उत्पन्न होते हैं. ऐसे ही जैसे नारकी उद्देशा कहा यावत् पर्याप्त असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय असुरकुमार में उत्पन्न होने योग्य होते हैं वे कितनी स्थिति से उत्पन्न होते हैं ? अहो गौतम ! जघन्य दश हजार वर्ष उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवा भाग इस के नवगमे रत्नप्रभा पृथ्वी जैसे कहना विशेषता यह है कि
प्रकाशक राजबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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