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पंचमांगविवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 48
भावार्थ
संखेज वित्थडावि असंखेज वित्थडावि, एवं संखेज वित्थडेसु तिणि गमगा, जहा सहस्रतारे असंखेज वित्थडेसु उववजति तेसुय चयतेसुय एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा पण्णत्तेसु असंखेज्जा, णवरं णोइंदियोवउत्ता अणंतरोववण्णगा, अणंतरोवगाढा, ૧૮૧૨ अणंतराहारगा, अणंतर पजत्तगाय एएसिं जहण्णेणं एक्कोवा दोवा तिणिवा उक्कोसेणं संखेजा, पण्णत्तेसु असंखेजा भाणियव्वा ॥ आरणच्चुएसु एवं चेव जहा आणयपाण
रमु णाणत्तं विमाणसु, एवं गेवेजगावि ॥८॥ कइणं भंते ! अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता ? भगवन् ! वे क्या संख्यात योजन के विस्तारवाले हैं, असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं ? अहो 2 गौतम ! संख्यात और असंख्यात योजन के विस्तारवाले हैं. संख्यात योजन के विस्तारवाले में तीन गमा सहस्रार जैसे कहना. असंख्यात योजन के विस्तारवाले में उत्पन्न होना व चवने का तो ऐसे ही कहना मात्र संख्यात उत्पन्न होना व संख्यात चवना काना, और विद्यमानता में असंख्यात का बोल कहना. परंतु नोइन्द्रिय युक्त, अनंतरोत्पन्न, अनंतरावगाढ, अनंतराहारक, अनंतर पर्याप्त ये पांच पदवाले जघन्य एक दो तीन उत्कृष्ट संख्यात चवते हैं व उत्पन्न होते हैं और असंख्यात विद्यान रहते हैं. आपण अच्युत काx आणत प्राणत जैसे कहना इस में तीन सो विमान कहे . नवग्रेवेयक का भी ऐसे ही जानना; परंतु इस में पहिली त्रि में १११, दूसरी त्रिक में १०७, तीसरी त्रिक में १०० विमान हैं ॥ ८॥ अहो भगवन् ।
तेरहवा शतकका दूसरा उद्देशा *48