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शब्दार्थ
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* अष्टम शतकम् * पो० पुद्गल आ० आशीविष रु० वृक्ष कि० क्रिया आ० आजीविक फा० फासुक अ० अदत्त प. प्रत्यनीक, बं० बंध आ० आराधना द० दश अ० आठवा स० शतक में ॥ १॥ रा० राजगृह जा. यावत् ए. एसा व० बाले क० कितनेप्रकारके भं० भग न् पो० पुद्गल गो० गौतम ति० तीनप्रकार के पो० पुद्गल
पोग्गल आसीविस रुक्ख किरिय आजीव फासुक मदत्ते ॥ पडिणीय बंध आराहणाय,
दस अट्ठमंमि सए ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहाणं भंते ! पोग्गला __ पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा पोग्गला प.तं. पओग परिणया, मीसपरिणया, वीससा
सातवे शतक में पुद्गल का स्वरूप बतलाया. आठवे में भी इस का विशेष स्वरूप कहते हैं. इस शतक में दश उद्देशे कहे हैं. जिनके नाम. १ पुद्गल स्वरूप २ आशीविष ३ वृक्ष के जीव का कथन ४ क्रिया काई कथन ५ आजीविक विचार ६ सुक दान ७'अदत्तादान ८ प्रत्यनीक का ९ बंध और १० आराधना
चार ॥१॥ राजगृह नगर के गणशील नामक उद्यान में श्री श्रमण भगवंत महावीर पधारे. श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे? अहो गौतम : पुद्गल तीन प्रकार के कहे हैं. १ जीव के व्यापार से शरीरादिक के भाव परिणमे सो प्रयोग परिणत २ प्रयोग व स्वभाव दोनों से परिणमे सो मीश्र परिणत और है
४ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि
भावार्थ
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी * .
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