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________________ सूत्र भावार्थ * अनुवादक बालब्रह्मचारिमुनि श्री अमोलक ऋषिजी जाव अणुत्तरोववाइयाणं, जहा नेरइयाणं, णवरं जस्स जा ठिई सा भाणियव्वा जात्र अणुत्तरोववाइयाणं, सव्वबंधे एकसमयं, देसबंधे जहणेणं एक्कतीससागरोत्रमाईं तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोदमाई समयऊणाई ॥ २१ ॥ वेउब्वियसरीरप्पओग बंधंतरेणं भंते ! कालओ केवाचरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अनंतं कालं अनंताओ जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो, एवं हो सातवी तमतमा पृथ्वी तक का जानना. विशेष में जिनको जितनी जघन्य स्थिति होवे उन में तीन समय कम कहना और उत्कृष्ट स्थितिवाले में एक समय कम कहना. पंचेन्द्रिय तिर्यच व मनुष्य का वायुकाय जैसे कहना. असुरकुमार, नागकुमार यावत् अनुत्तरोपपातिकका नारकी जैसे कहना, उन में जिन को जितनी स्थिति हांवे उन को उतनी कहना. अनुत्तरोपपातिकका सर्व बंध एक समय का देश बंध जघन्य तीन समयकम एकतीस सागरोपम उत्कृष्ट एक सेमयकम तेतीस सांगरोपम का जानना ॥ १३ ॥ अहो भगवन् ! वैक्रेय शरीर प्रयोग बंधका अंतर कितने कालका कहा. अहो गौतम ! सर्व बंधका अंतर जघन्य ( एक समय उत्कृष्ट अनंत काल, अनंत अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी यावत् आवलिकाका असंख्यातवा भाग, क्यों? कि कोई जीव उदारिक शरीर में से वैक्रेय शरीरी हुवा और पहिले समय में सर्वबंध होवे फीर दूसरे समय देशबंध होकर कालकर जावे और वहां से देव नारकी में वैक्रेय शरीर में सर्व बंध होवे इस अपेक्षा * प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला प्रसादजी * ११८८
SR No.600259
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages3132
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size50 MB
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